गुरु का गुरुत्तम दायित्व

गुरु का गुरुत्तम दायित्व

शिक्षा एक प्रतिपादक है और उसका मूल रूप शिक्षक है | भले ही भारतीय परिवेश और शिक्षण व्यवस्था को बदल दिया गया हो किंतु गुरु को अपनी गरिमा समझने और चरितार्थ कर दिखाने में वर्तमान परिस्थितियाँ बाधा नहीं पहुँचा सकती | आज गुरु की घटती गरिमा के लिए कौन जिम्मेदार है- क्या समाज, क्या छात्र या शिक्षक स्वयं ? इसका आत्मविश्लेषण अति आवश्यक है | क्या शिक्षक होने के नाते मुझे शिक्षण-तंत्र का वेतन नाम सुविधा और साधनों को बढाए जाने का ही अधिकाधिक समर्थन करना चाहिए या इससे परे शिक्षण नवाचारों, सामाजिक और राष्ट्रीय चुनौतियों पर आत्ममंथन कर राष्ट्र-निर्माता की भूमिका भी अदा करनी चाहिए ? मेरा विचार है कि अध्यापकगण गुरु-गरिमा को अपने ही बलबूते पर रखे और अपने गौरव का अनुभव कराते हुए आगे बढ़ता चले |

        विद्यार्थी अपने समय का अधिकतम भाग अध्यापकों के साथ विद्यालय में रह कर गुजारते हैं | ऐसी स्थिति में अध्यापक के कृतित्व और व्यक्तित्व की छाप बच्चों पर पड़नी चाहिए | अध्यापक अपने संपर्क के छात्रों में शालीनता , सज्जनता , बहादुरी , ईमानदारी और समझदारी जैसी सद्वृत्तियों को विकसित करने में कोई कसर न छोड़े | वह ऐसा करके न सिर्फ छात्रों को बल्कि पूरे समाज को ऋणी बनाकर अपनी गरिमा को चार चाँद लगा सकता है | बच्चों के जीवन निर्माण में सृजनात्मक प्रवृत्तियाँ विकसित करने के लिए उन्हें उपयुक्त और अनुरूप साहित्य पढ़ाना चाहिए | यदि अध्यापक चाहे और प्रयत्न करे तो न केवल साहित्य और भाषा की पुस्तकों से ही बल्कि भूगोल , इतिहास , गणित आदि विषयों को भी पढ़ाते व समझाते समय भी ऐसे सूत्रों का समावेश कर सकता है जो संस्कार-सृजन में सहायक हो सके | किसी भी विषय को किसी भी दिशा में मोड़ कर समझाया जा सकता है और ऐसा करना किसी भी अध्यापक की क्षमता-परिधि में हो सकता है | अध्यापक अपने विद्यार्थियों में अपने विषय के प्रति ऊँची भावना जनाते हुए उदात्त मनोवृत्ति के बीज बो सकता है जो आगे चलकर पल्लवित और पुष्पित होकर अंततः अध्यापक की गरिमा ही बढ़ाएँगे |

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